स्वार्थ या सच्चा प्रेम? पा और मां के बीच का रहस्य | अनिरुद्धाचार्य जी

प्रेम एक ऐसा शब्द है, जो सिर्फ दो अक्षरों में सीमित होता है, परंतु इसकी गहराई अथाह होती है। “पा” और “मा” के बीच में स्थित “रा” का संयोजन प्रेम का सही अर्थ समझाता है। अगर आप ध्यान दें तो प्रेम के इस व्याख्या के पीछे एक गहरा संदेश छुपा हुआ है, जो न केवल भौतिकता से ऊपर उठकर आत्मिक प्रेम की ओर इंगित करता है, बल्कि उस असल प्रेम को परिभाषित करता है, जो स्वार्थ और आकांक्षाओं से मुक्त होता है।

जब हम ‘पा’ बोलते हैं तो हमारा मुंह खुलता है, जैसे किसी को पाने की चाह। यह भाव इंसान के भीतर की वासनाओं और इच्छाओं को प्रकट करता है, जिन्हें वह संसार से प्राप्त करना चाहता है। वहीं, ‘मा’ कहते समय मुंह बंद होता है, जैसे किसी मातृत्व की पूर्णता और त्याग की भावना। इस अंतर से यह सिद्ध होता है कि प्रेम केवल लेने का नहीं, बल्कि देने का नाम है।

प्रेम की वास्तविकता

प्रेम का सही रूप क्या है? प्रेम का वास्तविक रूप वही है जहां कोई चाह या आकांक्षा न हो। जैसे एक मां अपने बच्चे से निस्वार्थ प्रेम करती है। वह कुछ भी पाने की उम्मीद नहीं करती, बल्कि सिर्फ देती है। उसका त्याग, उसकी निस्वार्थ भावना ही वास्तविक प्रेम की पहचान है। प्रेम तब होता है, जब लेने की लालसा न हो, केवल देने की भावना हो। जैसे मां अपने बच्चे के लिए सबकुछ करती है, बिना कुछ पाने की उम्मीद किए।

जब हम कहते हैं “प्रेम”, तब यह न केवल एक शब्द है, बल्कि एक अवस्था है, जो हमें हमारे भीतर की सभी विकारों, वासनाओं और विषयों से मुक्त करता है। जब हम ‘प्रेम’ कहते हैं, तो यह भाव प्रकट होता है कि हम किसी से कुछ नहीं लेना चाहते, केवल देना चाहते हैं। इसे वास्तविक प्रेम कहा जा सकता है।

सांसारिक प्रेम और आत्मिक प्रेम

आजकल जो प्रेम हम समाज में देखते हैं, वह अधिकतर स्वार्थ और इच्छाओं से प्रेरित होता है। लड़के और लड़कियां कॉलेजों में एक-दूसरे से कहते हैं, “आई लव यू”, पर यह प्रेम नहीं है, बल्कि यह शरीर की भूख और वासनाओं से उत्पन्न एक आकर्षण है। वह प्रेम नहीं, बल्कि एक क्षणिक आकर्षण होता है, जो समय के साथ खत्म हो जाता है।

प्रेम, जो सच्चा होता है, वह केवल भगवान से हो सकता है। भगवान से प्रेम करने का अर्थ है उनसे कुछ न मांगना, बल्कि उनके प्रति समर्पण करना। गोपियां कृष्ण से प्रेम करती थीं, पर उन्होंने कृष्ण से कभी कुछ नहीं मांगा। उनका प्रेम निस्वार्थ था, केवल कृष्ण को चाहने की इच्छा थी, उनके सिवा कुछ और नहीं। यही वास्तविक प्रेम है।

सांसारिक मोह और स्वार्थ

अधिकतर लोग जिसे प्रेम समझते हैं, वह मोह होता है। यह मोह केवल उनके स्वार्थ के कारण होता है। जैसे कोई पति अपनी पत्नी से कहता है “आई लव यू”, परंतु यह भाव उसके स्वार्थ से प्रेरित होता है। जब तक उसकी पत्नी उसकी इच्छाओं को पूरा करती है, तब तक वह उससे प्रेम करता है, और जब उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तब वह प्रेम समाप्त हो जाता है।

यहां तक कि मां-बाप और बच्चों के बीच भी यही मोह होता है। बच्चे जब छोटे होते हैं, तब वे मां-बाप के बिना कुछ नहीं कर सकते, इसलिए वे उनके करीब रहते हैं। पर जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं, उनका मोह बदल जाता है। यह मोह और स्वार्थ है, जिसे लोग प्रेम समझते हैं, पर यह सच्चा प्रेम नहीं है।

प्रेम में निस्वार्थता

सच्चा प्रेम वहीं होता है, जहां कोई स्वार्थ नहीं होता। जैसे भगवान ने हमें बिना कुछ मांगे ही सब कुछ दिया है – आंखें देखने के लिए, कान सुनने के लिए, पांव चलने के लिए। भगवान ने हमें सब कुछ दिया, पर उनसे कभी कुछ नहीं मांगा। यही निस्वार्थ प्रेम है।

जब हम भगवान से प्रेम करते हैं, तो हमें उनसे कुछ नहीं मांगना चाहिए। हमें उन्हें अपना सर्वस्व समर्पित करना चाहिए। यही प्रेम का सच्चा स्वरूप है। सांसारिक प्रेम, जो हम अपने पति, पत्नी, परिवार और दोस्तों से करते हैं, वह असल में मोह है। वह प्रेम नहीं, क्योंकि उसमें स्वार्थ छुपा होता है। सच्चा प्रेम वही है, जो भगवान से किया जाए, क्योंकि उसमें कुछ पाने की चाह नहीं होती।

प्रेम का सन्देश

आजकल के युग में, प्रेम का अर्थ बहुत ही गलत तरीके से समझा जा रहा है। लोग इसे वासना, आकर्षण और भौतिक इच्छाओं से जोड़ते हैं। असल प्रेम तो वह होता है, जो निस्वार्थ होता है, जिसमें किसी से कुछ पाने की लालसा नहीं होती। जैसे एक मां अपने बच्चे के लिए सब कुछ करती है, बिना कुछ पाने की उम्मीद के, वैसे ही हमें भी अपने जीवन में प्रेम को निस्वार्थ बनाना चाहिए।

प्रेम का सच्चा स्वरूप वही है, जहां केवल देना होता है, लेने का कोई भाव नहीं होता। जब हम इस सच्चाई को समझेंगे, तब हम असली प्रेम की अनुभूति कर सकेंगे।