जीवन में प्रसन्नता और संतोष का असली आनंद तभी आता है, जब हम दूसरों की प्रशंसा करना और अपनी भाग्य की सराहना करना सीखते हैं। कथा कहती है कि जब हम किसी उत्सव में डूब जाते हैं, तो समय का आभास ही नहीं होता। जैसे सूर्य भगवान का रथ एक महीने तक खड़ा रहा क्योंकि न तो उत्सव रुक रहा था और न ही उनकी विदाई की प्रतीक्षा समाप्त हो रही थी। इसी तरह, हमें भी अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों और क्षण भर के सत्संग का महत्व समझना चाहिए।

दूसरों की बुराई ढूंढने के बजाय उनकी अच्छाई को देखना और उसकी सराहना करना हमें आपसी प्रेम और सद्भावना से भर देता है। प्रशंसा करने का स्वभाव न केवल रिश्तों को मधुर बनाता है, बल्कि जीवन में शांति और संतोष का स्रोत भी बनता है। अपने दुख पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय, हमें दूसरों के सुख में प्रसन्न रहना सीखना चाहिए। अंततः, भगवान की रचना में हर व्यक्ति में कुछ न कुछ अच्छाई होती है—बस हमें उसे देखना और स्वीकार करना आना चाहिए।

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