परवरिश या परंपराओं से कटाव? बच्चों के भविष्य की सही दिशा | महंत भैया जी महाराज

आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में हम सभी अपने बच्चों को सबसे बेहतरीन सुविधाएँ और अवसर देना चाहते हैं। माता-पिता का सपना होता है कि उनके बच्चे शिक्षा और जीवन में सफल हों, लेकिन इस प्रक्रिया में, हम यह भूल जाते हैं कि कभी-कभी ज्यादा सुविधाएं और भौतिक सुख-साधन बच्चों के जीवन को अपंग बना सकते हैं। यह सच है कि हमें अपने बच्चों को आधुनिक जीवन के साथ जोड़ना चाहिए, लेकिन क्या केवल सुविधाएं ही उन्हें एक बेहतर इंसान बना सकती हैं?

बच्चों को सुविधाओं में घेर कर बना रहे हैं कमजोर

आजकल की सुविधाजनक जिंदगी में बच्चों को हर चीज़ आसानी से मिल जाती है। घर में सारी आधुनिक सुविधाएं, स्कूल की बस, और महंगे गैजेट्स ने बच्चों को शारीरिक रूप से सक्रिय रहने से रोक दिया है। ऐसा माना जाता है कि जितनी अधिक सुविधाएं देंगे, उतना ही बच्चा जीवन में सफल होगा, लेकिन यह सोचने का एक गलत तरीका हो सकता है। असल में, ज्यादा सुविधाएं बच्चों को आलसी और निर्भर बना रही हैं। यह बात समझने की ज़रूरत है कि सुविधाओं के पीछे दौड़ने से बच्चे की आत्मनिर्भरता और सृजनात्मकता पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।

विदेश जाने की दौड़: क्या खो रहे हैं हम?

बहुत से माता-पिता इस बात पर गर्व महसूस करते हैं जब उनका बच्चा विदेश में पढ़ने या काम करने के लिए जाता है। लेकिन यह गौरव तब तक है जब तक वे अपने बच्चों से जुड़े रहते हैं। एक किस्सा सुनाने लायक है: एक प्रोफेसर ने अपने बेटे को विदेश भेजने से मना किया था, लेकिन उनकी पत्नी की जिद के चलते बेटा विदेश चला गया। माता-पिता की दूरियां बढ़ गईं, और बेटा वहीं बस गया। जब प्रोफेसर का देहांत हुआ, तो बेटा और उसकी पत्नी केवल फोन पर ही विदाई देने आए, और अंतिम संस्कार किसी और ने किया।

यह एक ऐसी सच्चाई है जो आज कई घरों में घटित हो रही है। हम भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन यह भूल रहे हैं कि अपने परिवार और जड़ों से जुड़ाव भी ज़रूरी है। बच्चों को विदेश भेजने के पीछे सिर्फ यह सोच हो गई है कि यह प्रतिष्ठा और सफल जीवन का प्रतीक है, लेकिन यह बच्चों और परिवार के बीच दूरी भी पैदा कर रहा है।

फ्लैट की जिंदगी: सीमित संबंध और बढ़ती दूरियाँ

आजकल फ्लैट्स में रहने का चलन बढ़ता जा रहा है। लोगों के पास नीचे या ऊपर कोई अपना नहीं होता, फिर भी करोड़ों की कीमत वाले फ्लैट्स खरीदे जाते हैं। ये सोसाइटीज देखने में भले ही अच्छी लगती हों, लेकिन इनमें इंसानियत, सांस्कृतिक मूल्यों और धार्मिक स्वतंत्रता की कमी है। यहां तक कि धार्मिक आयोजनों और भगवान की उपासना के लिए कई तरह की औपचारिकताएँ पूरी करनी पड़ती हैं। भगवान का भजन करना भी एक चुनौती बन गया है।

यहां सवाल उठता है: क्या यह जीवन वाकई अच्छा है? क्या यह तथाकथित ‘अच्छी सोसाइटी’ हमें वह मानसिक शांति और सामुदायिक जुड़ाव दे रही है जिसकी हमें आवश्यकता है? शायद नहीं। यह सोचने का वक्त है कि हम अपने बच्चों के लिए कैसी दुनिया बना रहे हैं, जहाँ मशीनीकरण और आधुनिकता के नाम पर भावनाएँ, परिवार और संस्कार पीछे छूटते जा रहे हैं।

बदलते सामाजिक मानदंड और हमारी जिम्मेदारी

आज की युवा पीढ़ी पर विचार करें, तो उनकी जीवनशैली, कपड़ों की शैली और सोच में एक बड़ा परिवर्तन आया है। हमारी बेटियाँ अर्ध-नग्न कपड़ों में घूम रही हैं, और समाज इसे सामान्य मानने लगा है। यह आधुनिकता और स्टाइल की पहचान मानी जाती है, लेकिन क्या यह सही दिशा है? पुराने समय में राजघरानों की बहुएं और महिलाएं जिस तरह से अपने शील और गरिमा को बनाए रखती थीं, वह आज के समय में कहीं खोती जा रही है।

इसके साथ ही, हम अपनी पुरानी परंपराओं को भी भूलते जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग जिन पेड़ों की पूजा करते थे, जैसे पीपल और तुलसी, जो ऑक्सीजन का स्रोत हैं, उन्हें हम गवार समझकर नजरअंदाज कर रहे हैं। पर्यावरण और धार्मिक परंपराओं का जो संबंध था, उसे समझने और उसे बनाए रखने की आवश्यकता है।

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