आचार्य मोहित दुबे जी महाराज द्वारा प्रस्तुत एक सच्ची कहानी

यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है, जिसे उसकी कंजूसी के कारण ‘दानी दान चंद्र’ नाम से जाना गया। वह एक बहुत ही लोभी व्यक्ति था, जिसने कभी भी अपने जीवन में पुण्य कर्म नहीं किया। उसके लोभ के कारण उसे गांव के लोग दान चंद्र कहकर बुलाने लगे। उसके मन में यह भय था कि यदि वह पुण्य का कार्य करेगा, तो उसका धन खर्च हो जाएगा।

एक दिन उसकी पत्नी ने उसे कहा कि वह कभी पुण्य का काम नहीं करता। उसने कहा, “महाराज, आप कभी पुण्य का काम नहीं करते, क्यों न आप गंगा जी स्नान कर आएं?” यह सुनकर दानी दान चंद्र सोच में पड़ गया। गंगा जी उसके गांव से 12 किलोमीटर दूर थीं। उसने सोचा कि पैदल जाने से कोई खर्च नहीं होगा, इसलिए वह पैदल ही गंगा स्नान के लिए निकल पड़ा।

गंगा तक पहुंचने के बाद उसने सोचा कि यदि वह यहां स्नान करेगा, तो उसे किसी पंडा से मिलना पड़ेगा और उसे कुछ दान देना पड़ेगा। उसने यह सोचकर एक मुर्दा घाट का चयन किया, जहां उसे कोई पंडा न मिले। उसने अपने कपड़े उतारकर गंगा में स्नान करने के लिए प्रवेश किया।

जैसे ही वह गंगा में डुबकी लगाने लगा, भगवान पंडा के रूप में वहां उपस्थित हो गए और बोले, “यजमान की जय हो!” यह सुनकर दानी दान चंद्र चौंक गया और बोला, “आप कौन हैं?” भगवान ने उत्तर दिया, “हम पंडा हैं, और यही रहते हैं।”

अब दानी दान चंद्र को बड़ा अजीब लगा कि यहां भी पंडा है। भगवान ने कहा, “यह मुर्दा घाट है, जहां पंडे नहीं आते, लेकिन हम यहां रहते हैं ताकि आप जैसे लोग हमें दान दें।” दानी दान चंद्र ने सोचा कि उसे कुछ न कुछ तो देना ही पड़ेगा, लेकिन उसने कहा, “मैं तुम्हें उधार दूंगा, अभी मेरे पास कुछ नहीं है।”

पंडा ने कहा, “उधार चलेगा, लेकिन दान की संकल्पना करनी होगी।” दानी दान चंद्र ने उधार देने का संकल्प किया और पंडा वहां से चला गया।

दानी दान चंद्र 12 किलोमीटर पैदल चलकर घर लौटा। वह बहुत थका हुआ था और विश्राम करने के लिए बिस्तर पर लेट गया। उसी समय गेट पर खटखटाने की आवाज आई। पत्नी ने गेट खोला, तो देखा कि वही पंडा खड़ा था। उसने पंडा से कहा कि उसके पति बीमार हैं और दो-चार दिन बाद आना।

पंडा ने कहा, “हमारे संकल्प के कारण ही वे बीमार हुए हैं। जब तक वे स्वस्थ नहीं होंगे, मैं यहां से नहीं जाऊंगा।” यह सुनकर पत्नी अंदर गई और अपने पति से बात की। दानी दान चंद्र ने कहा कि उसे यह संकल्प पूरा करना होगा, नहीं तो वह ठीक नहीं होगा।

पंडा ने कहा, “तब तक मैं यहीं रहूंगा और तुम्हें दो-तीन दिन का अन्न लाकर देना होगा।” अब दानी दान चंद्र की पत्नी को बहुत परेशानी हुई, क्योंकि उसके पति बीमार थे और पंडा को अन्न देना मुश्किल हो गया था।

पंडा ने कहा, “अगर अन्न नहीं है, तो मैं यहीं रहूंगा।” पत्नी ने रोते-रोते कहा कि उसके पति अब सही नहीं होंगे।

आखिरकार, गांव के लोग इकट्ठा हुए और उन्होंने दानी दान चंद्र को काठी पर बांध दिया। उसकी पत्नी रोती रही और कहती रही कि वह मरे नहीं हैं, लेकिन गांव वालों ने उसकी बात नहीं सुनी।

दानी दान चंद्र को मुर्दा घाट ले जाया गया और चिता पर लिटा दिया गया। भगवान ने उसके कान में कहा कि वे बैकुंठ से आए हैं। यह सुनकर दानी दान चंद्र ने अपनी आंखें खोल दीं और देखा कि वही पंडा उनके सामने खड़ा है। उसने तुरंत समझ लिया कि वह भगवान हैं।

यह कथा हमें यह सिखाती है कि लोभ और कंजूसी जीवन में कभी भी सच्ची खुशी नहीं ला सकते। पुण्य कर्म और दान से ही जीवन में सच्ची शांति और सुख प्राप्त होते हैं। भगवान हर समय हमारे साथ होते हैं, चाहे हम उन्हें पहचानें या न पहचानें।